बजे थे छः कहीं न जाए मुहूरत टल,
हड़बड़ी में लोग सहसा ही चल पड़े,
मेहनतकश सभी बंदे शहर का नक्शा बदल पड़े।
दीवार पर लटकी घड़ी का बस इशारा था,
रातें रब को सौंपी थी दिन तो हमारा था,
फिर अगले सुबह जब काम पर लौटे,
लगा जैसे प्रभु के धाम पर लौटे।
काम ही तो है अर्चना रब की,
बस काम करना है यही थी गर्जना सब की,
पल में ही सबके साथ से नीव तैयार थी,
खुशियों से भरे मन में उमंग की बौछार थी।
मजदूर सभी जब कमर कस कर उतरे,
भवन का रूप बढ़ा था तब चमक थे और भी निखरे,
सांझ तलक सब ने काया कल्प संवारा,
समय छः बजते ही सभी ने एक दूजे को पुकारा।
कर ली वहीं छुट्टी उस दिन के काम से,
हंसी खुशी लौट चलें सभी आराम से,
वक्त के पाबंद बड़े मेहनती बंदे,
मन से साफ़ होते हैं भले कपड़े रहे गंदे।
अक्सर बड़े बड़े महलों को बनाने में ये व्यस्त रहते हैं,
अपनी टूटी चार दिवारी में भी मगर ये मस्त रहते हैं,
एक दिन समर्पित कर कुछ तो प्रतिष्ठा दिया इनको,
ये मजदूर भाई ही है जो है तारते जग को।
#मजदूर दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
© अमित पाठक शाकद्वीपी