रहती थीं जहां खुशियां अमर,
खेत और खलिहान सुहाना,
होता था जहां छुट्टियां बिताना।
आम का वो बाग बगीचा,
जिसने मेरा बचपन सींचा,
घर में गेंदे फूल की महक,
सुबह सवेरे चिड़ियों की चहक।
मामा मामी मौसी मौसा,
कभी ले आते थे समोसा,
नलकुप मटके का पानी,
भर भर कर लाती थी नानी।
कच्ची सड़क पर मकान पुराना,
अक्सर होता था आना जाना,
परिचय जहां था मां के नाम से,
जीवन कटता था बड़े आराम से।
जब से नाना नानी गुजरे,
नानी घर से नाते बिछुड़े,
चार कदम पर मामा का अब घर है,
पर रिश्तों की कहां कदर है।
बातें बिलकुल बंद हुईं अब,
खत्म अद्भुत वो प्रेम सुगंध अब,
नानी घर अब कुछ बचा नहीं है,
नाममात्र अब कुछ सच्चा नही है।
अब कुछ पहले सा नहीं इशारा,
फिर जाऊं जो वहां दुबारा,
जब तक नाना नानी जी थे,
बस तब तक था नानी घर प्यारा।
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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