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Sunday, May 29, 2022

वट सावित्री कथा (काव्य रूपेण)


वट सावित्री कथा (काव्य रूपेण)
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मद्र देश में रहते थे राजा एक महान 
सदा दुखी रहते थे नहीं कोई संतान

माँ सावित्री को प्रसन्न किया 
किये व्रत जप तप दान 

माता के आशीष से हुई
प्रकट कन्या एक गुणवान

राजा के सामने विकट परिस्थिति एक
कन्या के लिए मिले कोई योग्य वर नेक

पिता कहते पुत्री से नहीं ज्ञात कर पा रहा कैसे करू तेरा विवाह
योग्य वर ढूंढ लो स्वयं जैसी तेरी चाह

आज्ञा लेकर वन गयी तो मिले पुरुष अति यशवान
सत्य का आचरण करे नाम था "सत्यवान"

पल भर में ही वशीभूत हुई न्यौछावर किया तन मन
पति रूप में सत्यवान का उसने किया वरण

उदार चरित सत्यवान के थे ऐसे भाग्य
एक वर्ष ही आयु शेष थे कर देगा फिर देहत्याग

विवाह के उपरांत रहें दोनों प्रेम में लीन
अंततः आयी घड़ी एक संगीन

यमराज स्वयं आये लेने उसके प्राण
सावित्री चल पड़ी मृत्यु मार्ग में पतिव्रत मन में ठान

पतिव्रता धर्म इतना प्रबल यमराज भी करें मान
हो कर प्रसन्न प्रभु ने भी दे दिया जीवनदान

सौभाग्य की रक्षा के लिए वट सावित्री व्रत 
कथा को पद्य रूप में लिखता हूँ सब सत्य

चाहे जो स्त्री सुख सौभाय और मान
विधिवत यह पूजन करें पतिव्रत मन में ठान 

श्री स्कंद पुराण अंतर्गत वटसावित्री व्रत कथा पद्य रूपेण सम्पूर्णं 
           - पं. अमित पाठक शाकद्वीपी

प्रेम

एक सुन्दर सख़्श से जुड़ गए दिल के तार
तन भी सुंदर मन भी सुंदर होने लगा था प्यार

खुश थे हम भी पा कर उनको जैसे 
हो ईश्वर का उपहार
सीधी सरल सहज रहती थी
न कोई साज श्रृंगार

धीरे धीरे बात बढ़ी होने लगा मिलाप
सबके मन को मोह ले उसका ऐसा था स्वाभाव

स्नेह प्रिति की डोर बंधी थी हमदोनों के बीच 
दोनों मिल कर प्रेम वृक्ष को ऐसे रहें थे सींच

जाने फिर क्या हुआ अचानक सबका बदला मन
छोड़ गए मुँह मोड़ गए लौट गए अपने वतन

आज भी जब जब हो अनुभव प्रेम का
आते उसके ख़्वाब 
असर कभी बेअसर न होगा
 प्रभाव कहो या दबाव

- अमित पाठक 'शाकद्वीपी'

Friday, May 20, 2022

बदलता स्वभाव

उम्मीद जगा कर
बोहोत गहरा वार करते हो
पहली बार है या 
हरबार करते हो

हो गई नादानी 
अब सुधार कैसे हो
हमको बुरा बना दिया 
तुम तो अब भी वैसे हो 

थोड़ी रियायतें भी जरुरी हैं
जब साथ चाहते हो
क्यों लोगों को भला 
बस कामगार समझतें हो

लोग जुड़ते है आपसे 
तो विश्वास जानकर
काम हो जाने पर 
क्यों रंग बदलते हो ?

दिखतें हो फोटो विडियो में 
बड़े सीधे सरल यूँ
गुस्सा बेवजह क्यों
फिर रखते हो ?

बात से ज्यादा 
हमे लहजा पसन्द है
कड़वे शब्द भी 
शालीनता से कहिये
बोलते हो तो लगता है 
आग उगलते हो 

छवि धूमिल हो रही है आपकी
परिष्करण जरूरी है 
कुछ बड़ा हासिल नहीं किया है
अभी भी उड़ान में दुरी है 
 

Thursday, May 19, 2022

प्रेम अनुभूति

एक सुन्दर सख़्श से जुड़ गए दिल के तार
तन भी सुंदर मन भी सुंदर होने लगा था प्यार

खुश थे हम भी पा कर उनको जैसे 
हो ईश्वर का उपहार
सीधी सरल सहज रहती थी
न कोई साज श्रृंगार

धीरे धीरे बात बढ़ी होने लगा मिलाप
सबके मन को मोह ले उसका ऐसा था स्वाभाव

स्नेह प्रिति की डोर बंधी थी हमदोनों के बीच 
दोनों मिल कर प्रेम वृक्ष को ऐसे रहें थे सींच

जाने फिर क्या हुआ अचानक सबका बदला मन
छोड़ गए मुँह मोड़ गए लौट गए अपने वतन

आज भी जब जब हो अनुभव प्रेम का
आते उसके ख़्वाब 
असर कभी बेअसर न होगा
 प्रभाव कहो या दबाव

- अमित पाठक 'शाकद्वीपी'
(सम्पर्क सूत्र : - 09304444946)

दिल के पन्नो पर – इंकलाब प्रकाशन में प्रकाशित

दिल के पन्नों पर
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दिल के पन्नो पर 
उसकी कहानी  लिखनी है
गुजारे थे जो हसीन पल साथ में 
यादें सारी वो सुहानी लिखनी है 

लिखनी है उसकी बातें 
चाशनी से भी मीठी
प्यारी हरकतों की 
नादानी लिखनी है 
दिल के पन्नो पर 
उसकी कहानी लिखनी है

मिले थे कैसे राह में 
हम दोनों एक दूसरे से
कैसे बढ़ी थी 
नजदीकियां हमारी
बातें सारी वो पुरानी लिखनी है
दिल के पन्नो पर 
उसकी कहानी लिखनी है

उसके दिल को लिखना है
आईना मेरे दिल का
उसे मेरा हमसफ़र 
मेरी दीवानी लिखनी है
दिल के पन्नो पर 
उसकी कहानी लिखनी है

सोचता हूँ क्या बात होती
जो जुड़ गए होते रिश्ते भी
उसके याद में बिखरें
आँसुओं की रवानी लिखनी है
दिल के पन्नो पर 
उसकी कहानी लिखनी है

  - अमित पाठक शाकद्वीपी
         बोकारो , झारखण्ड

Saturday, May 14, 2022

एकता पाठक द्वारा लिखित कविता

माँ स्नेह की त्याग की प्रतिमूर्ति है 
हमे खुस देखकर वो हँसती है

माँ हमारे सारे दुःख हर लेती है 
बीमार होती तो भी सारे काम कर लेती है 

अपनी ख्वाहिशों को छोड़कर हमारे ख़्वाव पुरे करती है
खुद की जान दाव पर लगा हमे जन्म देती है

स्वयं भूखी रह जाती है हमे पेट भर खिलाती है 
अपने गोद में रखकर सर हमे माँ सुलाती है

हैरान हूँ मैं माँ कभी पढ़ी नहीं अक्षरों से लड़ी नहीं
पर हमारी हर धड़कन को पल में पढ़ जाती है 

बिन कहे हमारी हर बात जान लेती है
हम खुश रहे इसलिए तकलीफों में भी मुस्कुराना मान जाती है

हालातों से हार कर जुबाँ जब साथ नहीं देती
दर्द पहचान ले कोई तो बस माँ होती है

माँ प्रेम की काया है  
तपती धूप में छाया है

लाखों दुःख सहकर भी हमें संभाला है
आँचल में छिपाकर प्यार से पाला है 

स्वयं पढ़कर हमे पढ़ना सिखाया है
हालातों से हमे लड़ना सिखाया है

अनुभवों से अपनी हमे अच्छे बुरे का भेद बताया है
झेलकर कष्ट भी हमे आगे बढ़ाया है 

मेरी हर गलती माँ ने बड़े प्यार से समझाया है
कठिनाइयों का सामना करना भी माँ ने सिखाया है 

हमे झुकने न दिया उसने कभी
दे कर कलम तकदीर लिखने का हुनर बताया है

उसने अपने ज्ञान से दिखाया मंजिल का रास्ता 
माँ ही है जिसने हमे इतना कामयाब बनाया है 
                - एकता पाठक


मेरे बच्चे की किलकारी

मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है
(मातृत्व काव्य सृजन)
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मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है,
मैं हँसती हूँ उस पल में जो गुड़िया मुस्कुराती है ।
          मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है।।

नया सम्बन्ध बना हैं यूँ उसे देने हैं जीवन मूल्य,
उसे मैं सीख देती हूँ वो मुझें जीना सिखाती है ।
          मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है।।

कभी जो चोट लगे तो गुड़िया मरहम लगाती है,
नए समाज में ढलना मुझें हर पल बताती है ।
          मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है ।।

मन में हैं आशाएं बड़े धूमधाम से व्याहुँगी, 
मगर विदाई का जो मैं सोचुँ आँखे भर ही आती है ।
          मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है।।

सुखद एहसास है उसका होना भी,
मेरी बिटिया मेरे कामो में मेरा हाथ बटाती है ।
          मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है ।।

कभी आए कोई मेहमां हमारे घर, 
मैं बातें करती हूँ गुड़िया नास्ता ले आती है।
          मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है।।

सिखाना कुछ नहीं पड़ता वो खुद सब सीख जाती है,
कहाँ झुकना है रुकना है माँ बस इतना बताती है ।
            मेरे बच्चे की किलकारी मुझे माँ बनाती है ।।
                    - अमित पाठक

मातृत्व

ये जो काया है न तेरी ये उपहार उसी का है
तेरा जो भी मान है जग में दान उसी का है
बेशक हो गए हो सफल तुम जीवन में 
तेरी सफलता में भी उपकार उसी का है 

जिस समाज में चहकते हो फुदकते हो
ठीक से देखो ये संसार उसी का है 
तेरी जीत में ही जीत है उसकी 
तू जो हारा कभी जीवन में तो हार उसी का है

सोचो नहीं अवगत कराती संसार से
न पालती न पोषती अपने अनन्य प्यार से
सिंचती न तेरे जीवन को अपने रक्त स्वेद से
परीचय कहाँ से होता तेरा भेद विभेद से

रही है कष्टों में बड़े प्रेम से पाला है
भूखी रही है खुद दिया तुझे निवाला है
विपदाओं से लड़ पड़ी है तेरी सुरक्षा में
न जाने कितनी बार तेरी आपदाओं को टाला है

है तेरी पहली शिक्षिका सबकुछ तुझे सिखाया है
ईश्वर ने अपना ही प्रतिरूप  " माँ " बनाया है
सोचिए विचारिये और फिर बताइए
क्या आपने भी सन्तान धर्म अच्छे से निभाया है?

हुई नहीं है देर अभी कुछ तो कर्तव्य निभालो
बैठो माँ के पैरों में अपना शीश झुकालो
बड़ा  मार्मिक सा होगा शायद कह भी न पाए हम
आज ही माता के लिए कुछ करने की ठानो 
                               – अमित पाठक शाकद्वीपी

अश्कों की सौगात

कहती हैं माँ जानकी,  प्रभु को कर के याद । स्वामी कब तक राह निहारूं  कब आओगे नाथ ।। विधि ने भी क्या भाग्य लिखा है, नियति देती मात...