नाम है मेरा श्रीमती जलेबी।
मीठे रस से भरी पड़ी हूँ,
सीधी नहीं मैं टेढ़ी बड़ी हूँ।।
कचौड़ी मेरी संगी साथी,
अक्सर उसके साथ मैं आती।
सुबह सबेरे भोग हमारा,
हर लेगा हर रोग तुम्हारा।।
फिर भी ध्यान से मुझको खाना,
बन जाना ना ज्यादा दीवाना।
राष्ट्रीय उपमा रखती हूँ,
गली गली में दिख सकती हूँ।।
पहले पहल अस्तित्व में आई,
पर अब खो गई हस्ती भाई।
लड्डू पेड़े खाजे गाजे,
इर्द गिर्द ही मेरे साजे।।
दूध कहीं, कहीं दही सहारा,
दोनों संग ही करूं गुजारा।
फिर भी मुझको भूल गए सब,
हाथ लगाते नहीं कोई अब।।
हूँ सस्ती पर कोई न खाए,
उस पल मुझको गुस्सा आए।
देखी तेरी अदा फरेबी,
अब न तुझको मिलूं कभी भी।।
पर्व और त्यौहार की रौनक,
मेले में गुलज़ार मैं बेशक।
कभी कभी तो मुझको खाओ,
स्वाद में मेरे तुम हर्षाओ।।
बन कर रहूंगी तेरी करीबी,
हाँ जी हाँ मैं वही जलेबी।
– अमित पाठक शाकद्वीपी
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