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Sunday, June 8, 2025

आपबीती

अप्रैल 2022, उन दिनों में मैं योर कोट नाम के एक ऐप पर छोटी-छोटी रचनाएं लिखा करता था। छोटी-छोटी मुक्तक लिखने के लिए यह एक अच्छा साधन है और उन दिनों बिल्कुल निःशुल्क था । किसी दिन मेरी एक रचना पर हमरूह प्रकाशन की एक महिला तूलिका श्रीवास्तव का कमेंट आया कि क्या आप पुस्तकों के लिए लिखना चाहते हैं तो हमसे जुड़िए। व्हाट्सएप के माध्यम से फिर उनसे जुड़ा। मेरा पहला अनुभव था कि मैं किसी पुस्तक में अपनी कविता प्रेषित करने जा रहा था। पुस्तक का शीर्षक था पिता का साया। उक्त पुस्तक के लिए मुझसे कविता प्रेषित करने को इन्हीं महिला तूलिका श्रीवास्तव जी ने कहा। उत्साह वश मैंने अपनी पहली कविता लिखी और प्रकाशन के लिए भेज दी। करीब दो महीने बाद मुझे उस बुक का पीडीएफ प्राप्त हुआ। मेरी खुशी का तो समझो कोई ठिकाना ही नहीं था। ज्यों ही मैंने अपनी तस्वीर पुस्तक के पृष्ट पर देखी, मैं उमंग से भर गया। मैंने पुस्तक खरीदने की सोची पर उस समय यह पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध नहीं थी। मैंने हमरूह प्रकाशन के लोगों में से प्रशस्ति सचदेव ( वर्तमान में वैदिक प्रकाशन की संचालक ) से पुस्तक खरीदने का विचार रखा और उन्होंने ने भी आश्वासन दिया कि शीघ्र पुस्तक भेज दी जाएगी। इसी बीच प्रकाशन मंडल की ओर से दुबारा से तूलिका श्रीवास्तव ने संपर्क किया और मुझे कंपाइलर के रूप में कार्य करने का प्रस्ताव दिया। मैं इस विषय में बिलकुल अंजान था मुझे प्रकाशन के विषय में जरा सा भी ज्ञान नहीं था। कोरोना के कारण सब कुछ बंद था लोग घरों में ही थे ऐसे में यह प्रस्ताव आया तो लगा कि पुस्तक के कवर पर मेरा नाम होगा और मेरे नाम से भी कोई बुक उपलब्ध होगी यह सोचकर मैं राजी हो गया। फिर मातृ दिवस पर प्रकाशन का आश्वासन दे कर उन्होंने मुझे मातृत्व नामक संकलन का कंपाइलर बना दिया। उन्होंने बताया कि आपको लोगों रचनाएँ निःशुल्क लेनी है और साथ में उनका परिचय और फोटो लेकर क्रमवार ढंग से एक वॉट्सएप ग्रुप ( उन्होंने ही बना कर दिया था) में डालते जाना है। साथ ही यह भी कहा कि कम से कम 50 लोग जुटाने है बदले में पुस्तक और सर्टिफिकेट मुझे मेरे घर पर ही मिलेंगे। उस समय उन्होंने अपना पता बिहार बताया था तो मेरी रुचि और गहरी हो गई, क्योंकि मूलतः मैं भी बिहार से हूं। मैंने पूछा कि इतने सारे लोग कैसे मिलेंगे तो उन्होंने ही फेसबुक पेज और लेखक कवि ग्रुप आदि के बारे में जानकारी दी। अब क्या था मैं लग गया अपने काम में । 20 से 25 दिन में मैंने 60 रचनाकार जुटाएं जिनमें से कुछ सदस्य जैसे कि आदरणीय श्री बलवंत सिंह राणा जी अब तक साथ है। मैंने बड़ी मेहनत से लोगो की रचनाएँ जुटाई और उन्हें विश्वास दिलाया कि आगामी मातृ दिवस पर यह पुस्तक मुद्रित होगी। लोगों ने एक से बढ़ कर एक काव्य लिखें। मैं बार बार प्रकाशन को msg करता की ड्राफ्टिंग का काम हो रहा है या नहीं । चीज़ें कहां तक पहुंची और क्या क्या काम चल रहा है पर सटीक जानकारी नहीं मिलती। हर बार नया समय दे दिया जा रहा था। एक दिन मैंने कॉल कर के सारी जानकारी लेनी चाही तो प्रशस्ति सचदेव ने बताया कि वह बीमार है तभी तो बीमारी के कारण चीजें धीमी गति से चल रही हैं पर पुस्तक तय तिथि को ही आएगी। मैंने पूछा कि मैं ही pdf बना देता हूं आप उसे मुद्रित कर देना तो उस समय पर वे राजी भी हो गए। अब जब मैंने अपनी बनाई pdf उन्हें भेजी तो उनका कोई रिप्लाई नहीं आया। मैं अपने एग्जाम्स में थोड़ा सा व्यस्त भी था । ठीक मातृ दिवस के एक दिन पहले मैंने उन्हें कॉल किया और पूछना चाहा कि अभी तक pdf ग्रुप में नहीं आई कल प्रिंट होनी है बुक तो कार्य सारा सही है या नहीं। उस समय कई बार कॉल करने पर भी प्रशस्ति सचदेव ने फोन नहीं उठाया। 10 बार से भी अधिक बार फोन लगाने पर आखिरकार अभिसार गांगुली ने फोन रिसीव किया और बड़े बेढंग तरीके से बात की। उन्होंने कहा कि आप हमारी सीईओ से सीधे तौर पर बात नहीं कर सकते मैं एक कंपाइलर मात्र हूं जबकि प्रशस्ति सचदेव उस प्रकाशन की अहम सदस्या हैं तो मुझे उनसे बात करने का अधिकार नहीं है और केवल वे लोग ही मुझसे संपर्क करेंगे। अर्थात जब वह चाहें तो ही बात हो सकती हैं। मैंने पूछा कि पुस्तक का काम कहा तक पहुंचा है। वे बोले एक week का समय और लगेगा साथ ही सब से पैसे जुटा कर उन्हें बुक खरीदने को भी तैयार करने का आदेश दे दिया। मेरा तो गुस्सा जैसे सातवें आसमान पर चढ़ा और मैंने भी गांगुली बाबू को खूब सुनाया कि वे वादे के पक्के नहीं हैं । वो कोई लाट साहब तो नहीं है कि हम उनकी अकड़ बर्दास्त करते रहें। मैंने गुस्से में फोन काटा और तूलिका श्रीवास्तव और प्रशस्ति सचदेव दोनों को msg कर दिया कि अब बुक छाप मत देना नहीं तो मेरे से बुरा कोई नहीं होगा। लेकिन एक समस्या यह थी कि जिन सदस्यों को मैंने जोड़ा है वो तो मुझे पर विश्वास करके जुड़े थे उन्हें क्या पता कि कंपाइलर और प्रकाशन के लोगों में क्या मतभेद जारी है। अंततः मैंने विचार किया कि पीडीएफ मेरी तैयार है तो क्यों न मैं ही इसे मुद्रित करवा कर लोगो को भेज दूं। अब संघर्ष आरंभ हुआ कि मैं तो यह भी नहीं जानता कि कहा मुद्रण होगी, रूप रेखा कैसी होगी, पुस्तक प्रकाशन से पहले क्या करना चाहिए, ISBN के बारे में तो सुना ही नहीं था। तो खोज में लग गया एक दो छापाखानो में गया और मुद्रण के लिए बात की। उस समय करीब 10000 रुपए की लागत से मैंने पुस्तक छपवाई और 50 55 लोगों को डाक द्वारा प्रेषित की ताकि मुझ पर उनका विश्वास न टूटे । इसी बीच मुझे पिता का साया बुक रिसीव हुई। पुस्तक के सारे पृष्ठ पुराने और पीले थे पुस्तक के विषय सूची में error शब्द 15 से अधिक बार छपा था, संभव है कोई तकनीकी भूल हुई हो पर उसे बिना ठीक किए ही बुक प्रिंट की गई थी और तो और जो प्रमाण पत्र भेजे गए थे वह केवल पतली सी कागज पर मुद्रित था जो कि मुझे प्राप्त होने पर मुड़ा हुआ ही मिला था। बाद में यह सोच कर कि संतोष कर लिया कि यदि मेरी नाम की पुस्तक भी इसी प्रकाशन से छपती तो इसकी भी ऐसी ही दुर्दशा होती, पीले रंग के घटिया पन्ने और मुद्रण में चूक होती। कम से कम पुस्तक अच्छी गुणवत्ता वाली तो मैंने स्वयं से छपवाई और लोगों को भेजी भी। बाद में धीरे धीरे सारी छोटी बड़ी जानकारी को इकट्ठा किया, प्रकाशन के लिए जरूरी तथ्यों को पढ़ा समझा। प्रकाशन मंडल की स्थापना की और सरकार से पंजीयन कराया। आप सब के आशीष से ही तो यह साहित्य संगम बुक्स प्रकाशन कार्यरत है। 

सादर धन्यवाद 
अमित पाठक शाकद्वीपी 

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