बनकर मैं ही श्री निधि करूं जग का फिर उद्धार।
सृजन किया है जगत का, अंको में लेकर पाला है,
कभी कहीं हैं सौम्य स्वरूपा, कहीं धधकती ज्वाला है।
सींचन किया है मैने तेरा अपने रक्त स्वेद से,
परिचय भी है कराया, समता और विभेद से।
पग पग पर बस त्याग समर्पण, फिर भी सबने धुत्कारा है,
भूल गए सब लोग शास्त्र ने हमें, देवी कह कर पुकारा है।
कहने को बस नाम दिया है, मान अभी भी मिला नहीं,
मिला नहीं कभी तलब थी जिसकी, फिर भी कोई गिला नहीं।
अक्लमंद कुछ लोग यहां पर, मंद अक्ल के मुझको दिखें,
मान करो तो मान मिलेगा, बस कोई इतना तो केवल सीखे ।
जीवन रथ की बन कर पहिया, भवसागर भी तर जाएगा,
अभी नहीं मेरी उपमा जानी, अनभिज्ञ ही मर जाएगा।
कोई दिव्य ज्ञान मिले और नेत्र तेरे खुल जाए कभी,
तब जानोगे क्या है नारी? , नारी की महिमाएं सभी।
मत बुझ मुझे तू अबला, सबला बन कर जग जीत लिया,
अब नहीं निर्भर मैं तुझ पर, खुद से जीना सीख लिया।
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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