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Sunday, November 17, 2024

दिनचर्या

हाय ठंड का मौसम ज़ालिम, छोड़ूं कैसे मैं रजाई,
घड़ी रानी भी टिक टिक स्वर में, करती फ़िर अगुवाई,
जैसे तैसे आलस छोड़ा, ले ली तब अगड़ाई,
तब तक देख घड़ी रानी भी, जोर की शोर मचाई।

हाय सुबह इस धुंध पहरा, हर ओर देखा कोहरा कोहरा,
इतने में माता जी की बात कान में आई, 
कब तक सोता रहेगा तू,  छह बजने को आई,
उठ कर दौड़ा आंगन तक मैं, की घर साफ सफ़ाई।

नहा धो कर जब रेडी हो गया, सात बज गए भाई,
पूजा पाठ भजन में लग कर, प्रभु को शीश नवाई,
चाय के संग कुछ गप्पे हांके, कुछ अपनी भी गाल बजाई,
इतने में फिर आठ बज गए, बच्चों को पाठ पढ़ाई।

दस बजे जब काम से आया, मां ने बात बताई,
रोटी सब्जी नाश्ते में थी, क्षुधा की आग बुझाई,
कुछ इसकी कुछ उसकी मर्जी का, करने में वक्त लगाई,
कुछ नींद कुछ स्वप्न में खो कर, बाकी समय गंवाई।

फ़िर से बच्चों में मग्न शाम से रात्रि प्रहर जब आई,
भोजन कर के टीवी देखा, अगले दिन की रूप रेखा तभी बनाई,
लगी योग माया सताने तो, ओढ़ ली फिर से रजाई,
घोर नींद में खो गए बंधु, कुछ ऐसे दिवस बिताई।

© अमित पाठक शाकद्वीपी 

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