कभी पढ़ने जो बैठूं कोई कहानी बड़ी गहरी,
उस पल की साथी ये कॉफी मेरी ठहरी,
पन्ने दर पन्ने इसी के सहारे तय किए,
स्वाद दोनों की चुस्कियों के हमने एक लय किए।
घूंट घूंट दोनों को अंतर में उतारा,
नेह दोनों के साथ का रहा बड़ा प्यारा,
कभी बैठा कभी लेटा, कभी किस्सों में बस गए,
मिठास में इसकी घुलते, सब श्रांति के रस गए।
एक पन्ने पे आकर फिर दृष्टि उधर गई,
अरे भाग्यवान मेरी कॉफी किधर गई,
बना लाई फिर वो जब दूसरा प्याला,
दुगने उत्साह से फिर मैं कहानी पर नज़र डाला।
रात भर में निपटाए मैंने कई प्याले,
अंततः पुस्तक के सभी पन्ने पढ़ सही डाले,
महक इसकी महक उसकी सब आत्ममय हुए,
महकने लगे हम भी कभी जो दोनों को छूए।
फिर वक्त ये गहरी, इसके सहारे ही बितानी है,
मगर नींद को भी अमित अभी ही सतानी है,
है दूसरा प्याला, दूजी यामिनी सुहानी है।
रुका हूं जिस पन्ने पे, ये दूसरी कहानी है,
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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