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Wednesday, November 20, 2024

ओस की बूंद सा

ओस की बूंद सा 
जब कभी प्रेम के पर्ण दिखने लगे,
ओस की बूंद सा, मैं ठहर सा गया,
छू गई जब हवा, पर्ण हिलने लगे,
गिर के जैसे धरा पे बिखर सा गया। 

थी नमी खो गई, खो गया मैं वहां,
हो गया जैसे गुम, जाने क्या हो गया,
पल दो पल की रही सारी खुशियां मेरी,
संग मन मीत के क्षण भर सा रहा।

 © अमित पाठक शाकद्वीपी 
साहित्य संगम बुक्स 
संपर्क सूत्र : 8935857296

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