रुत सुहानी हो अगर
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राहें मुस्किल सी हैं, है कठिन ये डगर,
जानें कब तक रहे, जारी ये सफ़र,
धूप सी जिन्दगी का ये, प्रहर वो प्रहर,
छांव ढूंढे ये मन, हो न पाया मगर।
फिर से मुमकिन हुआ, टूटेंगे सबर,
साथ होंगे कभी *रुत सुहानी हो अगर ,*
लिख के नाम हमारा, फिर मिटा ही दिया,
उनका बेरुख लहज़ा हो जैसे रबर।
मैं रहूं न रहूं होंगी बातें मेरी,
गूंजेंगी जहन में यादें मेरी,
बन के झोंका हवा का तेरा स्पर्श लूं,
साथ तेरा मुझे चाहिए इस कदर।
मैं भी मैं न रहा, तुम भी तुम न हुए,
हो गए हम जो ‘हम’, है सब कुछ अमर,
तुम को ही सोचना, चाहना हमसफ़र,
नाम तेरा ही लेते मेरे अधर।
बस इसी आश में, आश की प्यास में,
हैं स्मृतियां तेरी बस मेरे पास में,
तुमको सब सौंप दूं, या कहो क्या करूं,
तेरी ही यादों में है गुजरती उमर।
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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