कुछ यूं थी उन दिनों बेपरवाह जिंदगी,
हम थे मगन खुद में और साथ बस धूल मिट्टी गंदगी,
कुछ सोचने समझने का बहाना कहां था ?
उन दिनों खेल में व्यस्त ये सारा जहां था।
दोस्ती में तो जैसे सोने चांदी की चमक थी,
सारे रिश्ते थे सच्चे सबमें अनूठी महक थी,
तन पे एक भारी सा बस्ता लदा था,
पढ़ाई तो होती नहीं थी, जी बिलकुल ही गधा था।
दो रुपए मिलते थे दादा जी से मुझको,
गुल्लक में मिट्टी के सहेजा था जिसको,
वही अपनी थी पहली कमाई,
सुनहले से पल थे, थी खुशियां समाई।
वो बचपन की यादें वो मौसम सुहाना,
वो मस्ती मस्ती में दिन रात बिताना,
होली दिवाली की रौनक गजब थी,
बोली सबों की मीठी अजब थी।
अब तो ये वैसा जमाना नहीं है,
यार दोस्त तो हैं पर गहरा याराना नहीं है,
कभी जो तकलीफें थी जग को ज़ाहिर,
अब तो कुछ भी किसी को बताना नहीं है।
दुनियां हुईं है तेज इतनी,
बताई न आंकी जा सके जितनी,
बेपरवाह जिन्दगी लापरवाह हो गई है,
मस्तियां छूट गई तो दर्द आह हो गई है।
यकीनन कोई तो कहीं आस होगा,
वो गुजरा जमाना कभी पास होगा,
फिर से महक उन दिनों की जो होगी,
ए जिन्दगी तुम ऐसे कब साथ दोगी।
फिर से बिना बात बातें करेंगे,
सुकून के हवाले ये रातें करेंगे,
कभी इत्मीनान के दो लम्हे समेटे,
छोड़ कर ये भाग दौड़ पग धीमे धरेंगे।
अगर साथ चाहो तो आवाज़ देना,
साथ चलेंगे मगर साथ देना,
गम और खुशियां दोनों बांट लेंगे,
कुछ यूं फिर से वो यादें जिएंगे।
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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