नील गगन से उतरी धारा चीर हृदय पर्वत का,
झर झर बहती नीर निरंतर वेगवान अनवरत सा,
सींचे जल से खेत कई और कइयों की प्यास बुझाए,
लिए कई कई रत्न संपदा आगे बढ़ती जाए।
कहीं खिलाएं पुष्प कई और कहीं पाप ये धोए,
कभी कहीं कोई कृषक इस जल से पहली फसल वो बोए,
शीतल जिसकी धारा में पशुओं का जीवन हो सुन्दर,
कभी इसी के तट पर कोई तीर्थ बने या मंदिर।
पीले फूल की खुशबू से तट की शोभा निखरे,
टूट टूट कर गिरे जल में तो औषधि बन बन बिखरे,
इसके ही बल से धरती की हरियाली का गौरव,
इसकी गुण की गाथा महती अनुपम इसका सौरभ।
इसे सहेजो, साफ रखो तो देगी ये खुशहाली,
वरना केवल प्रदूषित हो होगी फिर बदहाली,
इसकी रक्षा के लिए जन जागरण का पथ अपनाओ,
जल ही जीवन है इस जग में सबको यह समझाओ।
@ अमित पाठक शाकद्वीपी
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