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एक रोज जब आया मैं कोचिंग से घर,
आभास कुछ हुआ अजीब और मन में था भी कुछ तो डर,
सबको देखा मायूस तो पूछा क्यूं ये हाल है?
सब ठीक तो है न क्या कोई सवाल है?
सब की चिंता थी चहरे पर सब मौन बैठे थे वहीं,
सब चुप से थे कोई बोलता कुछ क्यूं नहीं,
मैं गुस्से में आवाज दी कोई कुछ बताएगा,
या बस मेरा सब्र आजमाएगा।
फिर पता चला कि दादा जी बीमार थे,
उन्ही की चिंता में घरवाले भी लाचार थे,
पूछा कि किस अस्पताल में है दाखिला,
पैदल ही था चल पड़ा जब साधन कोई न मिला।
दौड़ता हुआ मैं जब कमरे में गया वहां,
पूछा एक नर्स से मेरे दादा जी हैं कहां?
जानते थे लोग उनको ख्याति उनकी थी बोहोत,
बतलाया नर्स ने कि रूम नंबर थर्टी फोर।।
देखा एक बेड पर लेटे थे दादा जी,
बगल की एक कुर्सी पर बैठे थे वहां चाचा जी,
पूछा क्या हुआ है इन्हें? क्या कोई बात है?
कहते हैं कि डॉक्टर तो कह रहा नाजुक सी हालात है।
तीन दिनों तक वहीं अस्पताल में इलाज चला,
सेवा की सभी ने तब कोई और करता क्या भला,
चौथे रोज तो जैसे पूरा अस्पताल ही गमगीन हुआ,
दिन के दुसरे प्रहर जब शरीर उनका ब्रह्मलीन हुआ।
फैल गई सूचना पुजारी जी नहीं रहें,
ईश्वर की यही मर्जी थी कोई ज्यादा क्या कहें,
तब से आज तक उनकी यादों का ही साथ है,
स्मरण है उनकी बातें, सीख उनकी याद है।
दादा जी को समर्पित
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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