कविता और रद्दीवाला
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एक रोज रद्दी वाला मेरे द्वार पर आया ।मैने उसे भीतर बुलाया, हाल चाल जान लिया
पूछा आज कितना कमाया?
उत्तर में उसने दबे स्वर में बताया ।
सर आज तो आज का भी गुजारा न कर पाया ।।
सुबह से शाम तक भटका हूं बेमतलब ।
कौड़ी भर भी आमदनी का आज हिसाब नहीं आया ।।
मैंने कहा यूं न अब उदास हो ।
मुझे भी है कुछ बेचना, लाता हूं जो भी मेरे पास हो ।।
लाए गए फिर संदूक में बंद मेरी कॉपियां ।
वक्त का एक दौर मैंने था जिनमें जिया ।।
लिखी थी मेरी लिखावट में कुछ काव्य अंश झलकियां ।
कुछ जीवन के अनुभव थे कुछ थी उनमें मस्तियां ।।
बढ़ा दिया उनको , पूछा दाम क्या लगाओगे ?
बोला मुस्कुराते हुए दस किलो है वजन , आप बीस रुपए पाओगे ।।
शब्दों से रची कल्पना का ये कैसा मोल था ।
एक उम्र में कभी जिनका अमूल्य रोल था ।।
ठीक ठीक लगालो दाम बहुत कम है
कहता है रद्दीवाला, दीमक लगी है कॉपियां और फिर वजन भी तो कम है ।।
ठीक है तय करता हूं रुपए तीस पर ।
आ गया गुस्सा मुझे इसी चीज़ पर ।।
कहा कि दिन भर की कमाई का सब भार मुझसे चूकाओगे ?
ठग रहे हो मुझे ऊंची दुकान में तुम इसका पांच गुणा कमाओगे ।।
कहने लगा रद्दी वाला आप स्वयं पता लगाइए ।
कविता की कीमत का ज़रा भेद जान आइए ।।
बिखरी रहती है पुस्तकें कोई उन्हें छूता नहीं ।
मैं हूं मन का सच्चा मैने किसी को लुटा नहीं ।।
रखिए सहेज इन्हे इनका न अब कोई भाव है ।
अपको बड़ी आत्मीयता है इनसे , इतना क्यों लगाव है?
भाव मेरे मन के मेरे नयनो में चढ़ गए ।
नहीं बेचनी है कविता मुझे हम रद्दी वाले से लड़ गए ।।
दुबारा नए पृष्ठ पर उन कविताओं को सहेज कर ।
रखा है सुरक्षित से एक मेज पर ।।
प्रतिदिन उनको पढ़ता हूं समझता हूं ।
धारा में उन कविताओं की मैं बेलगाम बहता हूं ।।
ये कविता लेखन है मेरी वृति मेरा शौक मेरा सपना ।
मैं अपनी आपबीती इन्ही कविताओं में कहता हूं ।।
– अमित पाठक शाकद्वीपी
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