उतरी धरा पर जब मैं,
बनकर के मां तुम्हारी,
सींचा हृदय लगा कर,
हर ली विपत्ति सारी।
तुझको गले लगाया,
जब गोद में उठाया,
देकर के अपनी धड़कन,
काबिल तूझे बनाया।
मैंने तुम्हें संवारा,
मैंने तुझे सजाया,
माता का धर्म अपना,
हर पल ही था निभाया।
फिर क्या हुआ जो तुमने,
ऐसे मुझे सताया,
काटे मेरी शाखाएं,
इक वृक्ष न लगाया।
कभी छीन मेरा जीवन,
कई आशियां बनाएं,
धुएं में मुझको झोंका,
प्रलाप ही आजमाएं।
पर मां हूं मैं तुम्हारी,
मर कर भी तुझको चाहूं,
कुपुत्र तू हुआ है,
कुमाता न मैं कहाऊं।
मैं सौंपूंगी तुझको सबकुछ,
दे दूंगी प्राण वायु,
संतान की रक्षा में जैसे,
खर्चे कोई मां अपनी आयु।
कुछ सीख आजमाओ,
और पुत्र धर्म निभाओ,
काटे हैं कितने जंगल,
कुछ बाग भी लगाओ।
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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