कब तक कोई बाट निहारें, कितना सहे ये धूप छांव,
कभी गर्मी है संघर्षों की, कभी ठंडक भी परिणाम,
कभी लगता है आशाओं में, जीवन बीती तमाम।
इसमें उसमें जानें किसमे मिले कभी आराम,
धूप में जब झुलस गए तो किया छांव विश्राम,
सोच सुनहरा सार्थक कब हो, कब खास बने सब आम,
आशाओं के स्वर्ण पटल पर कब से नहीं कोई नाम।
@ अमित पाठक शाकद्वीपी
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