सारा गांव रहा जिसका दिवाना,
बच्चे बूढ़े और जवान,
सबके मुख पर उसका व्याख्यान।
हर किस्से में वर्णन उसका,
बड़ा रसीला फल था जिसका,
आम के वृक्ष की ठंडी छाया,
गांव वालों ने जहां सब सुख पाया।
ग्राम पंचायत का वह डेरा,
उसके दातुन से सबका सवेरा,
फल भी उसका लकड़ियां उसकी,
अद्भुत शोभा हर घर आंगन की।
गुण में पिछे छोड़े सबको,
फल दे देवे इसको उसको,
बाग बगीचे में रौनक जिस से,
गांव की रही पहचान भी उस से।
पेड़ किनारे की वह सड़क पुरानी,
जिस पथ पर सबकी आना जानी,
ठहरे कोई राहगीर कभी जो,
विश्राम का दे अवसर सभी को।
पर्व त्यौहार में पल्लव से उसके,
तोरण द्वार सजे हम सब के,
उसकी महत्ता क्या बतलाऊं,
बस मैं स्मृतियां दोहराऊं।
शहर में न वो पेड़ आम का,
बाग बगीचा बस रहा नाम का,
दातुन भी अब ब्रश बन बैठा,
मानो वृक्ष हम सब से रूठा।
हमने ही उसकी महिमा न मानी,
मूढ़ बुद्धि हम बड़ अज्ञानी,
शहर में खोजे अब छाया उसकी,
काट काट बेची जो काया जिसकी।
घर का सारा उपस्कर सजाया,
उसकी लकड़ी से ही दीवान बनवाया,
उसी की गोद में रात बिताऊं,
आम का पेड़ नहीं तो बस लकड़ियों से अब काम चलाऊं।
@अमित पाठक शाकद्वीपी
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