और खुश करता रह सभी जन को,
जब अपनी खुशी की बात रहें,
तो मिला कभी अधिकार नहीं।
है परोपकार ही धर्म तेरा,
और पर चिंता का मर्म तेरा,
अपनी चिंता में खोने को,
तु रहा कभी हकदार नहीं।
पर फिर भी किसको ऐतबार नहीं,
रोज रोज के ताने सुन,
अब तो जीना स्वीकार नहीं।
अब कुछ भी करूं तो व्यर्थ लगे,
सुन सुन कर करना शर्त कहीं,
है दूरी भली उस व्यक्ति से,
जिसका उचित व्यवहार नहीं।
© अमित पाठक शाकद्वीपी
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