है बड़ा कठिन सा ये जीवन,
घनघोर उदासी इस मन में,
सब त्याग चलूं किसी वन में ।
क्यों ऐसा मुझको भाग्य दिया,
कि अपनो ने ही त्याग दिया,
आता है हर पल रोना भी,
क्या पाप है नारी होना भी ?
सारा जीवन त्रुटिपूर्ण रहा,
हंस हंस सारा तंज सहा,
सारी उम्मीदें व्यर्थ रही,
हर क्षण हाजिर रहने की शर्त रही।
कभी मुझको देवी कहते हो,
कभी भक्षण करने को तकते हों,
कभी मान दिया नहीं कर्मो का,
बस ज्ञान दे रहे धर्मों का।
ग्रंथो में मैं गीता जैसी,
हल के नीचे सीता जैसी,
मैने ही सृजन किया सबकुछ,
है सहनशीलता भी अद्भुत।
न चाह रही कुछ दान करो,
बस हमारा भी सम्मान करो,
हाथों में तेरे हाथ किया,
हमनें भी तेरा साथ दिया ।
उन कर्तव्यों का ध्यान रहे,
उन कर्मो का गुणगान रहे
क्यों चाहते हो चुप सहती रहूं,
बन प्रीत नदी सी बहती रहूं।
जब विकट रूप यलगार किया,
शत्रु का जब संहार किया,
बन कर दुर्गा जब जाग गई,
सारी विपदा तब भाग गई।
अब बस इतनी सी चाहत है,
सम्मान मिले तो राहत है,
वरना सब वैसे का वैसा है,
मत पूछो जीवन कैसा है
ये नारी जीवन कैसा है।
– अमित पाठक शाकद्वीपी
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