हर बार सभी ने बेड़ियां लगाई
टोका रोका सभी ने मुझे हर पल
अपने मन का भी कहां मैं कर पाई
आभाव में गुजार दी बचपन मैंने अपनी
कम ही पढ़ाई मेरे हिस्से आई
दहलीज तक सीमित थी दुनिया ये मेरी
जबरदस्ती के सौख थे कलछी कड़ाही
सबकी उम्मीदें की मैंने पूरी
मेरी ख्वाहिशें किसी को नजर ही न आई
बीता जो बचपन जवानी जो आई
कहने लगे सब मुझको पराई
न पूछा न जाना किसी ने हाल मेरा
देखा शुभ दिन कर दी बिदाई
न्यौछावर किया है जीवन ये अपना
मैंने अपनी भूमिका बखूबी निभाई
अब बस जीवन से उम्मीद है इतनी
बनी रहूं मैं प्रेम की परिभाषा रोशन करूं सजन की अंगनाई
हो लंबी उम्र पिया जी तुम्हारी
मैंने तेरी खातिर ये मांग है सजाई
कभी दहलीज मायके की तो कभी ससुराल की सीमा पर हूं ठहरी
शायद इस लिए तो नहीं मैं सीमंतिनी कहलाई ??
पर इन सारी ही चीजों में रहा कुछ अधुरा ही सदैव,
आज भी जारी है मेरे आस्तित्व की लड़ाई।
– अमित पाठक शाकद्वीपी