मेरी कल्पना वास्तविकता से अच्छी थी
हमने सोचा था सबकुछ जैसे का तैसा हो
मगर सब पूछे जाते है जब पास पैसा हो
न चाहत न आरजू न तमन्ना किसी की
ज़िंदगी थी बेपरवाह जैसे धारा नदी की
मगर जीवन में सबकुछ सरल नहीं होता
कुछ ऐसी भी मुश्किलें होती है जिनका हल नहीं होता
कुछ लोग बस कर्म में है लगे हुए
उनकी परिश्रम के लायक कोई फल नहीं होता
मैं किसी की सादगी पर कोई सवाल नहीं करता
लोग हद से ज्यादा भी सीधे मिले तो बवाल नहीं करता
कोई पूछे गर मेरी सरलता का राज , मुस्कुराता हूं
मैं अपने इस गुण को अनुवांशिक बताता हूं
सादगी ये जो मेरे चहरे पे छाई है
सुनो मेरा चहरा मेरे पापा की परछाई है
उनकी छाया ही है छवि मेरी
सब सौगात है उनकी कुछ नहीं मेरी कमाई है
सरल शब्दों में कुछ लोग बड़ी बात करते हैं
कुछ लोग कठोर बन किसी की सरलता पर घात करते हैं
कहीं सरलता कई आयाम गढ़ रहा है
कहीं ऐसी भी नौबत है अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है
सभी कहते हैं खुद को सरल सादा
मगर कहीं दिखावे की प्रवृति है , कहीं है दंभ ही ज्यादा
हो जैसे भी उसी में अव्वल बनो
दरिया आग का नहीं तुम पानी सा तरल बनो
कई लोग है क्रूर दुनिया में
नसीहत ये रहेगी मेरी तुम बस सरल बनो , तुम बस सरल बनो
– अमित पाठक शाकद्वीपी स्वरचित