मैं भी किसी दफ़्तर में बाबू सरकारी होता
सरकारी वर्दी में अपने तन पर भी निखार होता
होता कितना अच्छा अगर ये सपना साकार होता
कोशिशें हमने भी की पर हर बार विफल रहे
अब नाकामियाबी में बस उम्र ढल रहे
जिनकी नजरो में थे सितारे कभी हम
आज उन्ही को बोहोत खल रहे
है रास्ता कितना लम्बा मेरी मंजिल कब आएगी ?
सालो से बस चल रहें सो चल रहें
ये भी हकीकत है कि योग्यता कम नहीं अपनी
कभी किस्मत से तो कभी सरकारी तरीकों पर भी है ठनी
पर कारण कोई भी फिर से ख़्वाब सजाया जायेगा
सच करने को सपने सारे फिर जोर लगाया जायेगा
तुम भी देखना गौर से उस उड़ान को
समाज में अपनी एक नई पहचान को
पी लो सारे गरल अपमान के
चलो उठो और लगो फिर से कुछ ठान के
तेरी परिश्रम ही तेरी इस रण में सारथी होगी
बन कर आओ अधिकारी फिर खुले मन से तेरी आरती होगी
– अमित पाठक शाकद्वीपी
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