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Sunday, November 27, 2022

एक ख्वाहिश

एक ख्वाहिश थी कि कहीं का कोई अधिकारी होता
मैं भी किसी दफ़्तर में बाबू सरकारी होता

सरकारी वर्दी में अपने तन पर भी निखार होता
होता कितना अच्छा अगर ये सपना साकार होता

कोशिशें हमने भी की पर हर बार विफल रहे
अब नाकामियाबी में बस उम्र ढल रहे

जिनकी नजरो में थे सितारे कभी हम
आज उन्ही को बोहोत खल रहे

है रास्ता कितना लम्बा मेरी मंजिल कब आएगी ?
सालो से बस चल रहें सो चल रहें 

ये भी हकीकत है कि योग्यता कम नहीं अपनी
कभी किस्मत से तो कभी सरकारी तरीकों पर भी है ठनी

पर कारण कोई भी फिर से ख़्वाब सजाया जायेगा
सच करने को सपने सारे फिर जोर लगाया जायेगा

तुम भी देखना गौर से उस उड़ान को
समाज में अपनी एक नई पहचान को

पी लो सारे गरल अपमान के 
चलो उठो और लगो फिर से कुछ ठान के

तेरी परिश्रम ही तेरी इस रण में सारथी होगी
बन कर आओ अधिकारी फिर खुले मन से तेरी आरती होगी
             – अमित पाठक शाकद्वीपी 
 

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