मगर न जानें कब रास्ता बदल गया ।
बड़ी मुश्किल से हासिल की थी एक अच्छी सख्शियत अपनी
उम्र के एक दौर ने वो रूतबा निगल लिया।।
ख्वाहिशें हाथ से रेत की तरह पिछली
कुछ भी न ठहरा सारा ही निकल गया।
न तपीस है न उजाला ही है जीवन में
मेरे हिस्से का तो मानो सूरज ही ढल गया।।
बड़े लोगो में गिनती होती है उनकी
उनको देखकर जो खुद को देखा मेरा दिल दहल गया।
सड़क पर उनको आते देखा तो
मैं खुद ही खुद राह बदल कर निकल गया।।
अब न आरजू है न तमन्ना है कोई
अमित गिरते गिरते पर संभल गया।
समझो सबको सबकुछ नहीं मिलता
मेरी किस्मत में विधि का ऐसा ही कलम चल गया।।
– अमित पाठक शाकद्वीपी
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