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Wednesday, October 26, 2022

इश्क का मौसम – स्वर्णिम दर्पण पत्रिका में प्रकाशित


इश्क का मौसम आगाज कर रहा है 
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शर्द हवा में आहें भर रहा है 
कह रहा है कि बड़ा बेताब था तुझ बीन 
बयां अपनी मुहब्बत वो आज कर रहा है
इश्क का मौसम आगाज कर रहा है 

मिली क्यों नहीं तू अब से पहले
ऐसा मलाल उसके साथ है लेकिन 
मिल गए हो तो किस्मत पे अपनी वो नाज कर रहा है
इश्क का मौसम आगाज कर रहा है 

अपने गमों को कोई सुरीला साज कर रहा है
निकले हैं आज खुशी में उसके आंसू
तेरे साथ को अपनी ज़िंदगी का ताज कर रहा है
इश्क का मौसम आगाज कर रहा है 

कई दफा देखा है तुझको हंसते मुस्कुराते
तुझे जानने को बेहतर तरीके से सनम
ये बंदा खुद को तेरे पास कर रहा है
इश्क का मौसम आगाज कर रहा है 

ये अक्टूबर नवंबर दिसंबर का महीना
तेरा साथ रहना तेरे साथ जीना
अब अपनी उम्र तेरे नाम करने का प्रयास कर रहा है 
इश्क का मौसम आगाज कर रहा है 

Wednesday, October 5, 2022

व्यथा

न ये कोई लेख है न कोई कहानी। ये एक आप बीती है जो कभी न कभी , कहीं न कहीं हम सबने महसूस किया है। कई बार सफर में हम खुद को बेहद अकेला पाते हैं। कई बार जिनसे उम्मीद की होती है वो उम्मीद पर खरे नहीं उतरते। ऐसे में हम खुद को दिलाशा देते है कि शायद हमने ही ज्यादा की उम्मीद लगा ली थी । कई बार लगता है कि अकेलेपन में जो भावनाएं है मन की उनको किसी से तो साझा करते। किसी को तो बताते अपनी बाते पर कोई होता ही नहीं है जिनसे कुछ कहा जाए। कई बार ऐसा भी लगता है कि हमारी ही बदनसीबी है। उस पल में किसी की याद भी आती है। हम खुद को कमजोर भी महसूस करते है पर जिनकी याद आती है उनसे बात कर पाने की या तो संभावना नहीं रहती या लोग नहीं रहते। उदास अपने मन को खुद से समेट कर फिर से खुद को सबके सामने मजबूत दिखाते हैं। खुद ही खुद में हंसने का दिखावा भी होता है। अपने मन की बात मन के ही किसी कोने में दबा देते हैं।ऐसा सबके साथ होता है। कभी किसी वारदात के बाद हम किसी से चीड़ से जाते है । नापसंद बढ़ सी जाती है । हम उनसे बात करना बंद कर देते हैं। खुल कर कुछ बोलने की चाहत भी नहीं रहती और सब कुछ खुद में ही सोचते और जवाब भी खुद देते हैं। हाँ हम सब ऐसे जीते हैं हाँ हम सब ऐसे जीते हैं ।

अश्कों की सौगात

कहती हैं माँ जानकी,  प्रभु को कर के याद । स्वामी कब तक राह निहारूं  कब आओगे नाथ ।। विधि ने भी क्या भाग्य लिखा है, नियति देती मात...