राही चलता जाता है
जीवन की बाधा से अनभिज्ञ
बस कदम बढ़ाता जाता है
अपने मन में व्यथा समेटे
कुछ कह भी नहीं पाता है
अनदेखे अंजान सफर पर
आगे बढ़ता जाता है
जंगल नदी मैदान से हो कर
पर्वत से टकराता है
कोशिश करता लांघ लूँ इसको
ऊँची छलांग लगाता है
गिरता है सम्भलता है
आखिर विजय ही पाता है
चट्टान से अडिग इरादे जोश देते है तन को
लिए संकल्प की नहीं रुकेंगे समझाता है फिर मन को
कर्मवीर अपनी राह स्वयं बनाता है
चलते चलते ही मिलती है मंजिल
अपने संघर्ष पर इठलाता है
अपने भाग्य का बन स्वयं विधाता नियति को ठुकराता है
यहाँ कर्म से भाग्य बदलते
सबको वह सिखलाता है
मन में कुछ बोझ सा लेकर
राही चलता जाता है
जीवन की बाधा से अनभिज्ञ
बस कदम बढ़ाता जाता है
- ✍️ अमित पाठक शाकद्वीपी