क्या कहूं उसे कविता थी या गज़ल थी ?
थी खूबसूरत बोहोत कैसे बताएं बोल कर ?
समझो तराशा हुआ कोई संगमरमर की महल थी
जो पहले पहल देखा तो ठहर सा गया नजर था
साथ उसके खुशनुमा सा सफर था
अक्सर देखते थे उसको आते जाते
कुछ तो दूरी पर उसका भी घर था
इजहार करने में हुई थी भले देरी
राह तकती थी अक्सर वो भी मेरी
प्रीत की डोर में बंधे थे मन दोनो के
गली में उसके सुबह शाम लगाता था फेरी
बयां करते थे दोनो जज़्बात अपने दिल के
मुस्कुराहट आ ही जाती थी होठों पर उस से मिल के
दीदार को उनके खड़े रहते थे नुक्कड़ पर
खुशबू मन के बगीचे में बिखेर रहे थे पूष्प प्रेम के खिल के
कभी न मिटने वाला वो पहले प्यार का किस्सा
उसके लिए सहेजे रखा है इश्क की किताब का एक हिस्सा
सोचो जरा तो अनोखे ये किस्से ।
हैं हम इनमे शामिल तो कभी हमारे ये हिस्से ।
हैं हम इनमे शामिल तो कभी हमारे ये हिस्से ।
✍️ अमित पाठक शाकद्वीपी