संभालना अश्रु को अपने मेरे लिखे बात पे।
इतिहास हो गई जो घटना आज उसे बतलाता हूँ ,
कर्ण की पीड़ा से तुझे अवगत करवाता हूँ।
जन्म दिया जिस माँ ने उसने ही उसे त्याग दिया,
विधि है निष्ठुर यहाँ ऐसा जो उसे भाग्य दिया।
पाला एक सुत ने जिसे वो सूरज का अंश था,
था वो भी ऊँची गोत्र का क्षत्रिय का वंश था।
आया समय जो ज्ञान का तो गुरू की उसने खोज की,
शस्त्र शास्त्र के जगत में उनदिनों गुरू द्रोण की ही ओज थी।
ठुकरा दिया गुरू ने उसको वर्ण के आधार पर,
नियति शर्मशार हुई नहीं अपने यूँ प्रहार पर।
किया फिर भी ज्ञान अर्जन अंततः परशुराम से,
पहचान भी मिली तो दुर्योधन के नाम से।
यथार्थ तो है यही वह अर्जुन से बड़ा वीर था,
"सबने त्याग दिया मुझे" उसे इस बात का ही पीर था।
रणभूमि में था सामना अर्जुन से शत्रु रूप में जब,
माता के वचनों से बंधा था कुंती पुत्र तब।
चाहता तो छोड़ देता माता के वाक्य को,
जैसे छोड़ा था माँ ने गंगा में अपने लाल को।
छल कर के देवो ने जिससे कवच कुंडल दान लिए,
इंसानों की युद्ध ईश्वर लडे तो नीति कैसे मान लिए।
अभागा था , पिता भी जिसका तम नहीं हर पाए,
छिप गए बादल के मध्य , पुत्र मरता है तो मर जाए।
सारा जीवन इस तरह का श्राप था बना रहा,
बेचारा कर्ण माँ बाप गुरू का कहाँ सगा रहा ?
- अमित पाठक