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Thursday, July 17, 2025

प्रेम पथिक की अभिलाषा –(स्वर्णिम दर्पण में प्रकाशित)

थी प्रेम पथिक की ये आशा 
कि फिर उनका दीदार हो
हो खड़े आमने सामने 
बाते भी दो चार हो

बीती बातें याद कर 
मुस्कुराएं हम दोनों
कुछ नया नवेला गढ़ने को
भी दोनो तैयार हो

थी प्रेम पथिक की अभिलाषा
कि फिर उनका दीदार हो

किस्मत का भी हो रुख
हमारे पक्ष में
सितारों की मेहरबानी से
खुशियों की बौछार हो 

थी प्रेम पथिक की अभिलाषा
कि फिर उनका दीदार हो

थामने को हाथ उनका 
ख्वाहिश कब से लिए बैठा हूं
दिल की ऐसी भी तमन्ना
पूरी इस बार हो
थी प्रेम पथिक की अभिलाषा
कि फिर उनका दीदार हो

– अमित पाठक शाकद्वीपी 

महाकाल मतवाला

सिर पे जटा और अंग विभूति,
शीश शशि अरु भांग की बूटी,
नेत्र धधकती ज्वाला,
वो महाकाल मतवाला।।

आन पड़ी जब विश्व पे संकट,
याद करें उन्हें देव दनुज नर,
तब पीए हलाहल प्याला,
वो महादेव मतवाला।।

पार्वती के संग विराजे,
हाथ डमरू पिनाक है साजे,
तन बाघाम्बर छाला,
वो आदिगुरु मतवाला।।

भूतन संग वो डेरा डाले,
डोर जगत की रहें संभाले,
रखें अद्भुत रूप निराला,
वो आदियोगी मतवाला।।

ध्यान धरूं बस महिमा गाऊँ,
पल पल प्रति पल शीश नवाऊँ,
कष्ट हरे जो सारा, 
देव वो भोला भाला।।

हर हर महादेव 

– अमित पाठक शाकद्वीपी 

Saturday, July 12, 2025

शूलपाणी

जय देव उमापति शिव शंकर,
हे महादेव प्रभु अभयंकर।
हो नाथ महेश सुरेश प्रभु,
जग जपता है शिव हर हर हर।।

हो घट घट के प्रभु तुम वासी,
हे शम्भु स्वयंभू अविनाशी।
हे शूलपाणी औघड़ दानी,
हे गिरिजापति हे कैलाशी।।

केदारेश्वर भूतेश्वर तुम,
पल पल समाधि में रहते गुम।
हो सौम्य कहीं, फिर रौद्र भी हो,
भोले भी हो कहीं क्रोध भी हो।।

कहीं आदियोगी और आदिगुरु,
तुम से ही सृष्टि होती शुरू।
काल से परे महाकाल हुए,
हरि सेवा को विकराल हुए।।

तुम आशा की परिभाषा से,
द्रवित हृदय की भाषा से।
तुम सा कौन हुआ ज्ञानी,
सबसे बढ़कर प्रभु तुम दानी।।

इस जग का अब उद्धार करो,
हम सब का बेड़ा पार करो।
अपने ही गण में रख लो कहीं,
अब अभिलाषा बस रही यही।।

काव्य रूप इस धार से, 
शिव का करूं अभिषेक,
भाव रूपी यह बेलपत्र,
अर्पण करूं अनेक।।

– अमित पाठक शाकद्वीपी 



अमित पाठक शाकद्वीपी

हूँ कौन और किस लिए धरा पर,
उस ईश्वर ने मुझे उतारा है।
उसकी मर्जी वो ही जाने,
सब उसका ही इशारा है।।

नाम समान ही अमित अथाह मैं, 
उग्र नदी का जल प्रवाह मैं।
लहरों सी आशाएं हरपल मन में रहूं समेटे,
विषधर जैसे डस लूं उनको, मुझसे गर कोई ऐंठे।।

धरती जैसी सहनशीलता, 
सूरज जैसा गुस्सा।
कभी कहीं मैं बिलकुल बुद्धू, 
अकल पड़ा ज्यों भूसा।।

रहूं अटल हिमवान सरिस, 
पर तृण पत्र सा डोलूं।
मित्रवत है नेह हमारा, 
सब से हस कर बोलूं ।।

कभी कहीं अकेले चल दूं,
फिर साथ किसी के हो लूं ।
बिना विचारे कुछ भी बक दूं,
जब जब मुख मैं खोलूं।।

लिए विजय विश्वास हृदय में,
सब से नाता जोडूं।
हर क्षण में मैं साथ निभाऊं,
हाथ कभी न छोड़ूं।।

अपने मुख से क्या ही सुनाऊं,
अपना मैं व्याख्यान।
सारी ही चीज़ों में प्रिय बस, 
अपना स्वाभिमान।।

अमित पाठक शाकद्वीपी 

जलेबी

मिठाइयों की मैं श्रीदेवी, 
नाम है मेरा श्रीमती जलेबी।
मीठे रस से भरी पड़ी हूँ,
सीधी नहीं मैं टेढ़ी बड़ी हूँ।।

कचौड़ी मेरी संगी साथी,
अक्सर उसके साथ मैं आती।
सुबह सबेरे भोग हमारा,
हर लेगा हर रोग तुम्हारा।।

फिर भी ध्यान से मुझको खाना,
बन जाना ना ज्यादा दीवाना।
राष्ट्रीय उपमा रखती हूँ,
गली गली में दिख सकती हूँ।।

पहले पहल अस्तित्व में आई,
पर अब खो गई हस्ती भाई।
लड्डू पेड़े खाजे गाजे,
इर्द गिर्द ही मेरे साजे।।

दूध कहीं, कहीं दही सहारा,
दोनों संग ही करूं गुजारा।
फिर भी मुझको भूल गए सब,
हाथ लगाते नहीं कोई अब।।

हूँ सस्ती पर कोई न खाए,
उस पल मुझको गुस्सा आए।
देखी तेरी अदा फरेबी,
अब न तुझको मिलूं कभी भी।।

पर्व और त्यौहार की रौनक,
मेले में गुलज़ार मैं बेशक।
कभी कभी तो मुझको खाओ,
स्वाद में मेरे तुम हर्षाओ।।

बन कर रहूंगी तेरी करीबी,
हाँ जी हाँ मैं वही जलेबी।

– अमित पाठक शाकद्वीपी 

Friday, July 11, 2025

मेरे शिव शंकर

शीश पे जिनके गंग विराजे,
गले सर्प की माला,
तन पर भस्म रमाए रहते,
अरु बाघाम्बर छाला।।

कानों में कुण्डल छलकाते,
मस्तक पर प्रभु चन्द्र सजाते,
पिए हालाहल प्याला,
अद्भुत रूप निराला ।।

डम डम डमरू नाद पुकारे,
शिव शिव शिव शिव नाम उच्चारे,
कष्ट हरे जो सारा,
उस शंभू का ही सहारा।।

नीलकंठ श्रीकण्ठ कहाते,
पशु पक्षी को अंक लगाते,
पार्वती को प्यारा,
नमन करे जग सारा।।

विपदा दूर करो प्रभु मन की,
पीड़ा हर लो सबके तन की,
देव बड़ा ये आला,
भोले फिरत रहे मतवाला।।

– अमित पाठक शाकद्वीपी 



Sunday, June 15, 2025

पिताजी : अब बुलाने पर भी क्यों वो पास आते नहीं?

पिताजी ; अब बुलाने पर भी क्यों वो पास आते नहीं?
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थाम कर अंगुलियों को चलाते थे जो,
देख कर हमको हंसता मुस्कुराते थे जो।
जो सुनाते थे मुझको कहानियाँ भी नई,
अब बुलाने पर भी क्यों वो पास आते नहीं?

जिनके बिन जिंदगी जैसे बेमोल है,
मेरी बुनियाद में जो अहम रोल है।
गलतियों पे अब कुछ सुनाते नहीं,
अब बुलाने पर भी क्यों वो पास आते नहीं?

उनकी तस्वीर का तो सहारा सा है,
सर पे आशीष है, इशारा सा है।
पहले जैसे मगर क्यों भला बतियाते नहीं,
अब बुलाने पर भी क्यों वो पास आते नहीं?

चल गए छोड़ कर, नाते सब तोड़कर,
क्यों था जाना भला हमसे यूँ रूठकर।
पूछने पर भी मुझे क्यों बताते नहीं,
अब बुलाने पर भी क्यों वो पास आते नहीं?

इस धरा पे कौन त्यागी पिता सा हुआ,
बेटा आगे बढ़े  देते हैं बस दुआ।
उनके कद तक कोई कद जाते नहीं 
अब बुलाने पर भी क्यों वो पास आते नहीं?

 – अमित पाठक शाकद्वीपी 

प्रेम पथिक की अभिलाषा –(स्वर्णिम दर्पण में प्रकाशित)

थी प्रेम पथिक की ये आशा  कि फिर उनका दीदार हो हो खड़े आमने सामने  बाते भी दो चार हो बीती बातें याद कर  मुस्कुराएं हम दोनों कुछ न...